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वास्तु के अनुसार उप दिशाओं का महत्व,  "अर्ध-दिशाएँ" या "गौण दिशाएँ"

वास्तु के अनुसार उप दिशाओं का महत्व, "अर्ध-दिशाएँ" या "गौण दिशाएँ"

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"वास्तु शास्त्र" में, मुख्य दिशाओं (उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम) के अलावा, चार कोणीय या उप-दिशाएँ भी महत्वपूर्ण हैं। इन्हें "अर्ध-दिशाएँ" या "गौण दिशाएँ" कहा जाता है। ये दो मुख्य दिशाओं के बीच में स्थित होती हैं।

अर्ध-दिशाओं का विवरण :

  1. ईशान कोण (उत्तर-पूर्व):

    • यह उत्तर और पूर्व दिशाओं के बीच का कोण है।
    • वास्तु शास्त्र में इसे सबसे शुभ और महत्वपूर्ण दिशा माना जाता है।
    • इसे ज्ञान, आध्यात्मिकता, और नए अवसरों की दिशा माना जाता है।
    • पूजा कक्ष, अध्ययन कक्ष, और पानी से संबंधित स्थान (जैसे कि कुआँ या बोरिंग) के लिए यह उत्तम है।
  2. आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व):

    • यह दक्षिण और पूर्व दिशाओं के बीच का कोण है।
    • यह अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
    • ऊर्जा, शक्ति, और पाचन से संबंधित है।
    • रसोईघर के लिए यह सबसे अच्छी दिशा मानी जाती है।
  3. नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम):

    • यह दक्षिण और पश्चिम दिशाओं के बीच का कोण है।
    • यह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
    • स्थिरता, भार, और पितरों से संबंधित है।
    • मास्टर बेडरूम और भारी सामान रखने के लिए यह दिशा उपयुक्त है।
  4. वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम):

    • यह उत्तर और पश्चिम दिशाओं के बीच का कोण है।
    • यह वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
    • परिवर्तन, गति, और सामाजिक संबंधों से संबंधित है।
    • अतिथि कक्ष या अस्थायी उपयोग के लिए यह दिशा ठीक मानी जाती है।

वास्तु शास्त्र में इन अर्ध-दिशाओं का भी उतना ही महत्व है जितना कि मुख्य दिशाओं का। किसी भी भवन या स्थान की ऊर्जा को संतुलित रखने और सकारात्मकता लाने के लिए इन दिशाओं के अनुसार निर्माण और व्यवस्था करना आवश्यक माना जाता है।